धर्म

धर्म.  … क्या परिभाषा है इसकी ? .. 

जी ये न कहियेगा की धर्म , “सर्व धर्म  सम्भाव  है.   …”

अजी वो तो बीते ज़माने की परिभाषा  हुई , जब कबीर और रहीम ने कृष्ण के प्रेम में दोहे लिखे। 

अब तो धर्म की परिभाषा नई है , और हो भी क्यों ना। …

आख़िर ज़माना बदल रहा है तो धर्म की परिभाषा भी बदलनी चाहिए।   

 

तो क्या है धर्म की नई परिभाषा ?

धर्म वो है जो हमें , “सिर्फ हम ही सर्वश्रेष्ठ हैं ” सिखाता है।   

धर्म वो है जो हमें , निर्दोषों का ख़ून बहाना सिखाता है. …

धर्म वो है जो हमें,  पुरे विश्व में सिर्फ हमे ही राज करना है सिखाता है। 

धर्म ! जो  कहता है , जो अपने धर्म का नहीं उसे  जीने का कोई अधिकार नहीं।  

धर्म जो हमें मासूम बच्चों  से उनकी हसीं छीन कर उन्हें भी धर्म के नाम पर  दूसरों का ख़ून बहाना सिखाता है।   

 

ये है धर्म …… और उसकी नई  परिभाषा.  …..

वैसे परिवर्तन संसार का नियम है। . . तो धर्म के नाम पर  ये परिवर्तन भी स्वाभाविक ही होना चाहिए।  

परन्तु फ़िर भी पता नहीं क्यों,  धार्मिक प्रवित्ति की होने के बाद भी धर्म की ये नई परिभाषा समझने में असमर्थ हूँ मैं।  

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