एक आख़िरी ख़त …..

आज फिर लिख रही हूँ तुम्हे  एक खत हर साल की तरह , पर शायद ये आख़िरी  खत हो मेरा तुम्हारे लिए।  तुम्हे यह  जान कर ख़ुशी होगी की ज़िन्दगी के दोराहे को पार कर आई हूँ मैं, की बनारस की उन् गलियों को  अब सिर्फ हँस कर देखती हूँ मै जहाँ हम दोनों एक साथ खेलते हुए बड़े हुए, की अब नहीं आते आँखों में आसूं मेरे  जब नाम तुम्हारा मैं लेती हूँ। 

हाँ  सफर तो ये बहुत मुश्किल था पर शायद उम्र  भी काम थी मेरी ज़िन्दगी के इन् झंझवातों को समझने की , पर खुश हूँ मैं  की ये खत लिखते हुए आसूं नहीं आये आँखों में मेरी ।  अपनी इस कामयाबी पर इतराना चाहती हूँ मैं।  जिस मुकाम पर तुम सालों पहले पहुंच  गए वहाँ पहुंचने में थोड़ा वक़्त लगा मुझे।  वैसे उम्र में तुमसे छोटी हूँ मैं तो मेरा ज़िन्दगी के इस उतार -चढ़ाव को देर से समझना  लाज़मी ही था।  पर अब  खुश हूँ मै कि एक आख़िरी खत लिख रही हूँ मैं…..

 

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