मसान :
आज नज़र जहाँ तक जाती है सब साफ़ – साफ़ दिखाई पड़ता है , सब कुछ पा लिया जान पड़ता है। पर फिर भी दिल को सब झूठा लगता है। कोई भी चेहरा सच्चा मालुम नही होता। क्यूँ ये दर्द अपनों का दिया लगता है ? क्यों अपनों से जितना इतना मुश्किल है और इस जीत का कोई मज़ा भी नहीं , और ना ही दिल हारने को तैयार है।
क्यों नज़र बस मसान पे टिकी है , पर क्यों मसान तक खुद चल कर जाने में पैर थरथराते हैं? क्यों इस एक सच को खुद से नहीं जी पाते हम ?
क्यों पूरी ज़िन्दगी अपने आप को झूट के पुल पर टिकाये रहते हैं , और जब सच की बारी आती है तो उसे दूसरों के कन्धों पे जीते हैं? क्यों अपने आप को इस एक सच के साथ नहीं जी सकते हम? क्यों ज़िन्दगी जीने के लिए झूठ ही एक मात्रा सच है ?
क्योंकि….. क्योंकि….. क्योंकि….
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